बाघ गणना के नतीजों से केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जितने उत्साहित नजर आ रहे हैं, उससे कहीं अधिक खुश उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और वनाधिकारी हैं। मुख्यमंत्री और वनाधिकारियों की खुशी स्वाभाविक है, क्योंकि जहां हर रोज बाघों के मरने की खबरें आ रही थीं, वहीं जयराम रमेश ने राज्य में 56 बाघों के इजाफे की घोषणा कर उन्हें बाघों के संरक्षण का चैंपियन बना दिया। लेकिन सवाल आज भी जिंदा है कि जैव विविधता के लिए विख्यात इस राज्य में वन्यजीवों और खासकर बाघों व गुलदारों (तेंदुआ) की इतनी मौतें क्यों हो रही हैं।
कार्बेट टाइगर रिजर्व में पिछले सात महीनों में आठ बाघ मर गए, पर अधिकारी कह रहे हैं कि वहां बाघ बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल इस दफे देश में पहली बार बाघों की गणना वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर हुई है। इस हिसाब से देखा जाए, तो पिछली गणना के आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जब पिछला रिकॉर्ड ही विश्वसनीय न हो, तो फिर आप कैसे कह सकते हैं कि बाघ घट रहे हैं या बढ़ रहे हैं! पिछली बार की गणना भी राज्य सरकार ने ही कराई थी, जो पगचिह्नों पर आधारित थी।
जबकि इस बार गणना के नतीजों को कम से कम चार तरीकों से परखा गया। इसमें सबसे पहले प्रशिक्षित कार्मियों ने बाघों के पैरों के निशान जुटाए, फिर उपग्रह के जरिये अभयारण्य और उसके बाहर बाघों के ठिकानों के आंकड़े जुटाने के बाद कैमरा ट्रैपिंग से एक-एक बाघ की पहचान सुनिश्चित करके आंकड़े एकत्र किए। ये कैमरे जंगलों में जलाशयों के आस पास लगाए गए।
पूरे देश में बाघों और गुलदारों की गणना अब तक पगचिह्नों के आधार पर होती रही है। यह तरीका 1934 में सबसे पहले निकॉल्सन द्वारा पलामू में शुरू किया गया था। बाघ या गुलदार जंगल के कच्चे मार्गों पर चलना पसंद करते हैं। मिट्टी या रेत पर बने इनके पगचिह्नों को ट्रेसिंग पेपर पर उतारा जाता था। प्लास्टर ऑफ पेरिस से पंजों की प्रतिकृति भी उतारी जाती थी और फिर विश्लेषण किया जाता था। इसी से नर और मादा का भी अनुमान लगाया जाता था। यह तरीका कितना सटीक था, उसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि गणना में कम से कम और ज्यादा से ज्यादा संख्या का अनुमान लगाकर बीच की संख्या को असली संख्या मान लिया जाता था।
जबकि नवीनतम गणना में वैज्ञानिक तरीके अपनाने के बावजूद अधिकतम अनुमान 1875 और न्यूनतम अनुमान 1571 लगाकर बीच का रास्ता अपनाया गया है। अगर यह तरीका ही सटीक है, तो बाघों के घटने या बढ़ने की असली तसवीर इस गणना को आधार बनाकर अगली गणना में सामने आएगी। इसलिए गणना के नतीजों के अतिरेक में डूबने के बजाय बाघों की मौत और मानव-बाघ संघर्ष पर सोचने की जरूरत है। कार्बेट पार्क देश का पहला टाइगर रिजर्व है। इस क्षेत्र में बाघों का घनत्व दुनिया भर में सबसे बेहतर रहा है। मगर कार्बेट पार्क में जनवरी से लेकर अब तक पांच बाघ और चार हाथी मर चुके हैं।
राज्य में गत वर्ष कुल नौ बाघ मारे गए थे। भारतीय वन्यजीव संस्थान के विशेषज्ञों के अनुसार, यहां लगभग हर माह एक बाघ कम हो रहा है। राज्य गठन से अब तक 50 से अधिक बाघ मर गए हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन 10 वर्षों में कुल 544 गुलदार और 186 हाथी भी मारे गए। यही नहीं, आपसी संघर्ष में भी बाघ मारे जा रहे हैं। इनमें वे जानवर नहीं हैं, जिनकी खालें पकड़ी न जा सकीं और सीधे अंतरराष्ट्रीय चोर बाजार में चली गईं। ताजा आंकड़ों से राज्य सरकार भले ही खुश है, मगर सचाई यह है कि पिछले दिनों पौड़ी गढ़वाल के रिखणीखाल क्षेत्र में लोगों ने पिंजरे में बंद एक गुलदार को जिंदा जला दिया।
राज्य में वन्य जीवों और मनुष्यों के बीच संघर्ष के कारण गंभीर समस्या खड़ी हो गई है। इसकी मुख्य वजह अधिकांश आबादी का वनों के आसपास होना है। प्रतिवर्ष वन्य जीवों द्वारा औसतन 32 व्यक्ति मारे जाते हैं और लगभग 105 घायल होते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, लगातार वन क्षेत्र घटने से मांसाहारी और शाकाहारी, दोनों तरह के जीवों का प्राकृतिक आवास छिन्न-भिन्न हो गया है। प्रदेश का 14 प्रतिशत भूभाग वन्यजीवों के लिए संरक्षित होने के बावजूद कुप्रबंधन के कारण राज्य में बाघ असुरक्षित हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपने राष्ट्रीय पशु के संरक्षण के लिए कारगर कदम उठाएं।
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